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कानून बनते-बनते कहीं लोकपाल का दम न निकल जाए

एक नजर इधर भी
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देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए लोकपाल विधेयक लाने की कवायद चल रही है. भ्रष्टाचार को रोकने के लिए लोकपाल की लड़ाई कई वर्षों से चलती आ रही है. अन्ना हजारे की अगुवाई वाली आज की लोकपाल की लड़ाई अब तक की सबसे बेहतर स्थिति में है. लेकिन सरकार की नीयत को देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि यह लोकपाल विधेयक अपना सही स्वरुप प्राप्त कर पाएगा. 5 अप्रैल 2011 को जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल विधेयक को लेकर अनशन किया गया. बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया. जंतर-मंतर पर जन सैलाब उमड़ पडा था. इस आंदोलन से लोकपाल विधेयक के लिए सही दिशा तैयार हो रही थी. लोकपाल का ढांचा तैयार करने के लिए सरकार ने अन्ना एंड पार्टी की सभी मांगो को मान लिया था. अन्ना ने 9 अप्रैल को अनसन समाप्त कर दिया. तब सब कुछ सही चल रहा था. अनसन समाप्त होने के दो दिन बाद सरकार ने अपना सही चेहरा दिखाना शुरु कर दिया. सरकार ने अन्ना और उनके सहयोगियों के पिछे जासुस लगा दिया ताकि उनके पिछले कामों का हिसाब लिया जा सके. सरकार इसमें कुछ हद तक कामयाबी भी की. वकील शशी भूषण को सीडी मामले में फसाया भी गया, इस बीच लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए बैठके चल रही थी. कुछ जरुरी मसलों पर सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच मतभेद दिखाई दे रहे थे.


lokpalफिर आया 4 जून का दिन, योग गुरु बाबा राम के नेतृत्व में कालेधन को विदेशों से वापस लाने के लिए पूरे देश में अभियान चलाया गया. 4 जून को रामलीला मैदान पर अच्छी खासी भीड जुट गई थी. अधिक से अधिक लोग इस अभियान से जुड़ने लगे. उधर सरकार ने सारा ध्यान लोकपाल विधेयक से हटाकर बाबा रामदेव के आंदोलन को पूरी तरह से समाप्त करने में लगा दिया. देखते ही देखते सरकार ने शनीवार 4 जून को अपना सबसे बड़ा खलनायक रुप दिखाकर बर्बरतापूर्वक इस आंदोलन को समाप्त कर दिया. अन्ना और उनके सहयोगियों को सरकार का निर्मम व्यवहार पसंद नहीं आया  इसलिए अन्ना हजारे ने 8 जून को लोकपाल मसौदा समिति की बैठक में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया और राजघाट पर अपने समर्थकों के साथ एक दिन का अनशन किया. अन्ना का यह अनशन सरकार के गले नहीं उतरा तब सरकार ने मन बना लिया कि वह सिविल सोसाइटी की किसी भी बात को नहीं मानेगी. आगे क्या था 20 जून का दिन आया सरकार और सिविल सोसाइटी के बैठक हुई. कुछ मुद्दों पर सहमति हुई लेकिन कुछ अहम मुद्दों पर असहमति भी हुई, जैसे प्रधानमंत्री पद, उच्च न्यायपालिका और संसद के अंदर सांसदों के आचरण जैसे मुद्दे, जिसे सरकार लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहती है.

सवाल यह उठता है कि जब से लोकपाल की चर्चा हुई तब से अब तब जनता को क्या मिला है या फिर आने वाले समय जनता को क्या मिलने वाला है. अभी तो सरकार ने सिविल सोसाइटी की प्रमुख मांगो को अस्वीकर कर दिया है. जब मानसून अधिवेशन आएगा तो लोकपाल बिल में कितना काट-छाट किया जाएगा इस पर कुछ नहीं कह सकते.


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