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गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने उपवास में मुस्लिम समुदाय द्वारा दी गई टोपी को स्वीकार न करके एक अलग तरह का मुद्दा छेड़ दिया है, जिसका फायदा राजनीतिक रूप से कांग्रेस और दूसरे राजनीति दल उठाना चाहेंगे.
मई के मध्य और आखिरी दिनों में एक टोपी ऐसी भी थी जिसने पूरे देशभर में अपने जलवे बिखेरकर बच्चे, बूढ़े, और जवानों को अपनी ओर आकर्षित किया. उस टोपी का नाम था अन्ना की टोपी. जिस गांधी की टोपी को पहनना युवाओं के लिए शर्म की बात होती थी वही युवा इसे पहनकर गर्व महसूस करने लगे थे. इस टोपी ने सभी धर्म, जाति और वर्ग के बेड़ियों को तोड़ दिया और एक आवाज में भ्रष्टाचार के खिलाफ नासूर बनकर सामने आई. यह टोपी भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के लिए कफन थी जिसका सामना करने के लिए उनमें हिम्मत नहीं थी.
एक साधारण सी दिखने वाली टोपी का जादू पहले कभी देखने को नहीं मिला. इसने कुछ ही दिनों में ही सम्मान और मुकाम हासिल कर लिया. इसे पहनकर लोगों ने उन सभी पापी राजनीति करने वाले नेताओं को बता दिया कि यदि देश की व्यवस्था को खतरा हो तो हम सब एक साथ हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी को दी जाने वाली टोपी में ऐसा क्या था जिसे मोदी ने अपनाने से इंकार कर दिया. क्या उस टोपी से धर्म की बू आ रही थी. क्या उस टोपी के बहाने राजनीति नफा-नुकसान को देखा जा रहा था या फिर उस टोपी के बहाने मोदी की सोच को परखा जा रहा था कि वह दूसरे धर्म को लेकर कैसा सोच विचार रखते हैं. एक ओर अन्ना की टोपी ने पूरे देश और भारतीय समाज को एक सूत्र में बांधने की कोशिश की वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय द्वारा दी गई टोपी ने एक व्यक्ति को बांधने में कामयाबी हासिल नहीं की. अरे भइया यह किस तरह की टोपी है ?
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